करीब चालीस साल रेलवे की नौकरी करने के बाद पापा आज रिटायर हो गए. इतने लम्बे समय तक किसी के साथ रहना और फिर उससे अलग होना. उन्हें कैसा लग रहा होगा, यह जानना बहुत मुश्किल है. ना हम ही उस शानदार तरीके से पूछ पाएंगे और अगर पूछ भी पाए तो पापा बताएँगे नहीं. वो अपनी तकलीफ कम से कम नहीं बताना चाहते और न बताते है. मेरे पापा एक न ख़त्म होने वाला उपन्यास है, सजीव उपन्यास.
इस अतिविकसित समय में काश कि कोई मशीन इजाद हो पायी रहती जिससे हम किसी का मन पढ़ पाते..
यूँ तो समाज में एक से एक लोग हुए है और होंगे भी. पर पापा भी एक ही व्यक्तित्व है. जिन्होंने खूब खोया है और पाया शायद कुछ भी नहीं है. उनके व्यक्तित्व का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि गाँव में उनके बड़े वुजुर्ग कहते है कि वो तो कलयुग में 'धर्मराज' है.
पापा हम सभी भाई-बहनों के हीरो रहे. ताकतवर और जुझारू , हार नहीं मानने वाला. यह सब तब था जब हम छोटे थे. बड़े होने पर पाया कि पापा पिछली सारी 'इमेज' से बड़े है, तब जब हमेशा हारते है. उनका कोई सपना पूरा नहीं होता पर हौसला ये कि सपने देखना छोड़ते नहीं. जितनी संख्या में सपने टूटते नहीं, पापा उसके कई गुना सपने देख डालते है. और फिर लग जाते है उन्हें पूरा करने में.
हम उनके सपने का हिस्सा रहे है. एक बार मै सात साल की उम्र में हास्टल में पढ़ने भेजा जा रहा था. मुझे नहीं मालूम था कि हास्टल कौन सी बला है. मेरे लिए कपडे, विस्तर और बहुत कुछ तैयार किया जा रहा था. मै बहुत खुश था कि बस में बैठने मिलेगा और फिर नए नए कपडे!
शाम हो रही थी. अगली सुबह मुझे निकल जाना था. पापा चारपाई पर लेटे हुए थे, मै उनके पेट पर बैठा हुआ था कि अचानक पापा रोने लगे. मुझे उनका रोना अजीब लगा. मेरा हीरो, जिसके होने पर हम सबसे ज्यादा सुरक्षित होते थे, वो रो रहा था. और वजह भी क्या.. मुझे बस में बैठना है इसलिए.... बाद में अम्मा-पापा के रोने कि वजह समझ में आयी और 'अच्छे' से आई.
आज यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि पापा खुश होंगे कि उदास.. छुट्टी नहीं मिली वरना आज मै उनके साथ होता और उनके मनस्थिति को जानने की कोशिश करता.