Thursday, August 12, 2010

बेरोजगार


 रितेश मिश्रा


पहुँच से बाहर नहीं है मेरे
कुछ भी
लेकिन जब मैं पहुँच जाता हूँ वहां
तो बाहर हो जाता हूँ उस ' कुछ भी' से
अपने आप

स्वप्न कुछ नहीं होता
मगर कुछ भी हो जाता है मेरे लिए एक स्वप्न !

अपने लिए कोई सटीक उदाहरण तलाशता मैं
भटक जाता हूँ
जान बूझकर
उस ' प्रसन्न अवस्था ' में जाने से पहले

धीरे से एक ठुनगी मार कर गिरा लेता हूँ
अपना बना - बनाया घर
मारे डर के
कि कहीं मैं बेरोजगार न हो जाऊं

उन दिनों मैं
कुछ ठहर सा गया था
किसी एक बहुत साधारण लेकिन 'सुरक्षित काल' में
और एक दिन
मेरे कान के बहुत पास कोई चिल्लाया
"
डरपोक ! तू बेरोजगार है, मानसिक मंदी का शिकार है "

फिर घर, घर कहाँ होते हैं आजकल
कालिख पोतने और पोंछने की जगह बनके रह गए हैं...बस

घर बनाने वालों की शान में
बाहरी दीवारे बिल्कुल साफ रखी जातीं है
छज्जों पर बैठे कबूतरों को गोली मार दी जाती है

इसीलिए मैं एक ठुनगी में गिरा देता हूँ अपना घर
कि
न कालिख पोती जाये
न पोछी जाये
न कबूतरों को गोली मारी जाये
और उसमे मेरा निहित
निजी स्वार्थ ये
कि मैं बेरोजगार न होने पाऊं

हम बिना घर वाले लोग
ठीक - ठाक होते है
हालाँकि हमारे हाथ कुछ भी लग जाये
तो वो कुछ भी नहीं रहता
हम अच्छी तरह समझते है
कि हमारे पहुँच के बाहर कुछ भी नहीं है
'
घर' भी नहीं
लेकिन हम,
हम बेरोजगार नहीं होना चाहते |





अगर भौतिक  उपलब्धियों की भाषा में बात की जाये तो शायद रितेश मिश्रा के पास बहुत कुछ नहीं होगा. वो खुद भी इस बात को स्वीकार करते है कि वो समय कि सामान्य लाइन में फिट नहीं बैठते है, पर उनकी कविता कुछ और बया करती है  कि दरअसल समय ही कुछ असामान्य है. abnormal....आप माखन लाल विश्वविद्यालय से अपनी पढाई पूरी कर चुके है और अभी फ्री प्रेस जर्नल में कार्यरत है.  

8 comments:

  1. Great !!!
    I think this is in one of the rare poems where we can search our own life story and it is for everyone.
    Thanks to Ritesh & Thanks to Kundan !
    - VIVEK

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  2. very nice poem Ritesh ji.....quite relevant to the present day scenario and especially people like us....

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  3. Bahut hi touching sir...apne us haar ko sabdon mein likha jiske bare mein soch kar rongte khade ho jate hain....very sensitive composition sir...

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  4. रितेश सर आपको बधाई, महत्वपूर्ण बात यह है की ये कविता अपने कब लिखी, बेरोजगार रहते हुए या रोजगार पाने के बाद.

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  5. nice poem sir! really touching! this poem represents the common man,thats why I feel myself very close to it....

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  6. Shayad mere liye ye kavita ek nayi shuruat karne ka hausla ho........
    Dhanyavaad Ritesh jee
    -Bikash K Sharma

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  7. रितेश जी. अपनी कलम से आपने कइयों की बात बयां कर दी। बहुत खूब।

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