Friday, March 11, 2011

'ए', 'बी', 'सी', 'डी' से जुडी एक घटना की याद.

('नयी बात' पर 'कला का आदर'  नाम से पोस्ट पढ़कर उसके के लिए कामेंट लिखा. पर शायद इसकी लम्बाई अधिक होने से उसपर पोस्ट नहीं हो पाया. उसे यहाँ पब्लिश कर रहा हूँ. नयी बात के उस पोस्ट को देखने के लिए आप यहाँ क्लिक करें...http://nayibaat.blogspot.com/2011/03/blog-post.html)
 

 पोस्ट पढ़ते हुए एक घटना याद गईतब मै कक्षा 'शिशु' का छात्र था. अभी मुझे ', बी, सी, डी' नहीं आती थी. इसे सिखाये जाने का चहुओर प्रयास जारी था. घर में पापा और स्कूल में आचार्य जी (आचार जी). एक दिन पढ़ाते हुए पापा ने मेरी कॉपी में ', बी, सी, डी' लिख डाली . खूब सुन्दर, गोल गोल अक्षरों में.

कुछ दिनों बाद स्कूल के सबसे 'मरखाह' अचार जी ने हमें कक्षा में ', बी, सी, डी' लिखने को कहा. और कह के कहीं चले गए.  जैसा के अक्सर होता है,  मै बात-चीत में व्यस्त हो गया. भूल गया शायद की बात-चीत के सिवा जीवन में कुछ और भी जरुरी होता है.

उस समय की मेरी उम्र का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि अम्मा मेरी आँखों में काजल लगाकर स्कूल भेजती थी और मुझे इसके लिए खूब चिढाया जाता था. उस उम्र की ये भी एक बड़ी आफत थी.मै जर-जमा पांच का था.

खैर, मै बात-चीत में व्यस्त था. अति-व्यस्त. तब तक आचार जी धमके और कॉपी ताबड़तोड़ जांच होने लगी.

मेरे सारे साथियों ने अपने प्रयास दिखाने शुरू किये. सबने सही में  संघर्ष किया थावस्तुस्थिति  को  देखकर मेरे होश उड़ गए. अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था. मेरा भी नंबर आ गया, जिसे नहीं आना चाहिए था. जैसे कयामत गई.
मुझे अपनी जगह से उठकर अचार जी के पास तक जाना. क्या बताऊँ कितना तकलीफदेह साबित हो रहा थापैर जैसे जमीन में धंस गए थे. पैंट गीला होने को था. उस अतिशीघ्र ख़त्म हो जाने वाले तीनो-लोको की यात्रा के दौरान मै झूठ-मुठ में कॉपी के पन्ने पलटे जा  रहा था, जैसेकि दिखा रहा होऊं की मैंने भी खूब लिखा है, बस लिखा हुआ  कॉपी में  कहीं ग़ुम हो गया है और खोजना मुश्किल हो रहा है . यह और कुछ नहीं बस अवश्यम्भावी  कुटम्मस को यथा-संभव टालने का संघर्ष भर था.

पर जैसा कि कहा जाता है कि इश्वर भी उसी को मदद करता है, जो संघर्ष करता है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ. पन्ने पलटने के दौरान मैंने पाया की  मुझे मार से बचाने वास्ते ईश्वर  ने मेरी कॉपी में  ', बी, सी, डी' लिख डाली है . मैंने कॉपी अचार जी को थमा दी. लो भईया चेक कर लो.

आज के  अनुभव से तो यही कहा जा सकता है की मेरे बालमन ने अचार जी को अन्डर-इस्टीमेट कर दिया था और छोटे खतरे से बचने के चक्कर में बड़ा खतरा मोल ले लिया था.

मेरा तेवर देख अचार जी आश्चर्यचकित. दरअसल उन्होंने मुझे बातचीत करते हुए देखा था और पूरे  मूड में थे. उन्होंने पूछा, "तुमने लिखा है?"मैंने कहा " हाँ". उन्होंने फिर कहा, "तुमने?", मैंने फिर कहा, "हाँ". ये "तुमने?" और " हाँ" का सिलसिला लम्बा चलाअब अचार जी ने मुझे  महज धोना नहीं, बल्कि पूरी फजीहत के साथ  धोने का मन बना लिया  थामेरे अथक प्रयास के बाद भी स्थिति संभल नहीं रही थी और इधर "हाँ" कहते- कहते मेरा चेहरा वगैरह  सब लाल हुआ जा रहा था

मेरी ढीठाई से आग-बबूला हुए अचार जी ने आदेश दिया  की मेरे सामने  लिख के दिखाओ.

क्या बताऊँ के सिर्फ एक '' लिखने भर में  कितनी दफा लिखना और मिटाना पड़ा था. मैं लिख कम रहा था और मिटा ज्यादा रहा था. '' तो बहुत दूर की बात हुई, इसे लिखे जाने में इस्तेमाल होने वाले  चार लाईनों में  एक भी लाइन सीधी नहीं खींच पा रही थी. कितनी दफा 'भगवान से प्रार्थना की थी कि किसी तरीके से '' हु--हु लिखा जायेअभी 'बी' से लेकर 'जेड' तक का संघर्ष बाकी था.

पर ठीक वैसा ही '' लिखना कहाँ संभव था! भगवान ने कभी आजतक जरुरतमंदो की सुनी है कि मेरी सुनते... सारा खेल उल्टा पड़ गया...

अचार जी मेरा बाल पकड़ के हिला रहे थे. दांत भी पिसे जा रहे थे. वही पुराना सवाल बस अंदाज बदला हुआ, "तुमने लिखा है?"  मैंने भी हार नहीं मानी थी और, "हाँ" कहे जा रहा था.

मुझे हार नहीं मानते हुए देख उन्होंने पूछा, "तो फिर अभी क्यों नहीं लिख पा रहे हो?" मेरा तर्क यह  था की आप सामने बैठे हो और मुझे डर लग रहा है, इसलिए मै लिख नहीं पा रहा हूँ.

उस दिन स्कूल की घंटी ने बहुत साथ दिया. घंटी बज गई और मै कुटम्मस से बाल-बाल बच गया. दरअसल, '', 'बी', 'सी', 'डी' मेरे पापा ने दो-तीन दिनों पहले मेरे उसी कॉपी में लिखा था.

इन सारे अनुभवों से गुजरते हुए मैंने यही पाया की स्कूल में  दूसरे का लिखा कभी नहीं दिखाना चाहिए वरना मुश्किल बढ़ जाती है.
*