Tuesday, April 5, 2011

ये ऐसे जीतते हैं दिल और दिमाग़



अनिल का यह लेख आज (अप्रैल ६) के जनसत्ता में छपा है.  यहाँ यह बताना अनिवार्य है कि आज के एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक  आखिरकार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने स्वीकार किया है कि सुरक्षाबलों ने  उन तीन गाँव  पर कहर बरपाया था, जिसका जिक्र इस लेख में हुआ है. बाकि अनिल आजकल वर्धा में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कर रहे है, साथ ही साथ रिसर्च भी.
 
अनिल मिश्र 

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले के चिंतलनार इलाक़े के मोरालपल्ली गाँव से ताज़ा ख़बर यह है कि वहां भूख से छः आदिवासियों की मौत हो गई है. मरने वालों का संबंध भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की प्राचीनतम जनजातियों में से एक मुरिया जनजाति से है. हालांकि, प्रशासन भूख से मौत की पुष्टि नहीं कर रहा है. उसका कहना है कि इन मौतों की वजह बीमारी हो सकती है. और जांच के बाद ही पता लग पाएगा कि मौत की असली वजह क्या है? महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले के (कु)चर्चित मेलघाट इलाक़े में जब पहले पहल कुपोषण से भारी तादाद में बच्चों की मौत की घटनाएं सामने आ रही थीं तब भी प्रशासन इंकार कर रहा था कि मौत की वजह भोजन की कमी है. उड़ीसा के कालाहांडी के लिए भी यही तर्क थे. और अब महाराष्ट्र सरकार ने तो आधिकारिक संचार में, फ़ाइलों से, ’कुपोषण’ शब्द को ही ख़त्म कर दिया है. पिछले नवंबर में भेजे आदेश में सरकार का कहना था कि कुपोषण शब्द सुनने में अच्छा नहीं लगता. इससे सरकार की बदनामी होती है.

चिंतलनार इलाके का मोरपल्ली गाँव उन तीन गाँवोँ मेँ से एक है जहां 11, 12 और 16 मार्च को सरकारी सुरक्षाबलों और सरकार समर्थित कुख्यात सल्वा जुडुम गिरोह के विशेष सुरक्षा अधिकारियों (SPOs) ने जमकर कहर बरपाया है. कई समाचार स्रोतों ने पुष्टि की है कि कम से कम पांच ग्रामीणों को गोली मार दी गई, तीन महिलाओं से बलात्कार किया गया और तीन सौ झोपड़ियों में आग लगा दी गई. घटना के बाद जिला कलेक्टर प्रसन्ना एक दल के साथ, राख हो चुके गांव में ज़रूरी भोजन सामग्री, कपड़े और अन्य मानवीय राहत सामग्री पहुंचाने जा रहे थे, लेकिन पुलिस बल और कुख्यात गिरोह सल्वा जुडुम के लोगों ने उन्हें गांवों में जाने से रोक दिया. उनके साथ बदसलूकी भी की गई, धमकियां दी गईं. अंततः सरकारी राहत सामग्री पहुंचाने जा रहे दल को उल्टे पांव लौटना पड़ा.
दंतेवाड़ा का यह इलाक़ा कथित माओवादियों का एक प्रमुख केंद्र माना जाता है. कहा जाता है कि इस क्षेत्र के तक़रीबन चालीस हज़ार वर्ग किलोमीटर में प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) का शासन चलता है. इसलिए केंद्र सरकार के दिशा-निर्देश और केंद्रीय अर्ध-सुरक्षा बलों की अगुआई में यहां ’इलाक़ा दख़ल गतिविधि’ (एरिया डॉमिनेशन एक्सरसाइज़) संचालित की जाती है. इस एक्सरसाइज़ में राज्य पुलिस के सशस्त्र बल, ज़िला पुलिस और सल्वा जुडुम के विशेष सुरक्षा अधिकारी भी शामिल होते हैं. यह कथित माओवादियों से लड़ने का एक फ़ौज़ी तरीक़ा है.

इसके अतिरिक्त, दावा किया जाता है कि, ’विकास’ की गतिविधियां भी साथ साथ संचालित करने के दिशा-निर्देश हैं. जैसा कि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार दुहराते रहते हैं कि ’माओवादी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े ख़तरे हैं. जिनसे निपटना एक अहम चुनौती है.’ लेकिन कभी कभार हमारे प्रोफ़ेसर प्रधानमंत्री आगे भी जोड़ते हैं, जिसका आशय कुछ इस तरह होता है कि ’ये लोग ’निर्धनों में से निर्धनतम’ (पुअरेस्ट ऑफ़ दि पुअर) हैं और इन इलाक़ों में संवेदनशीलता दिखाने के साथ साथ ’विकास’ की ज़रूरत है. 

केंद्रीय गृह-मंत्रालय ने, पी. चिदंबरम के नेतृत्व में, इस फ़ॉर्मूले को अपनी शब्दावली में ऐसे ढाला कि सुरक्षा बल संघर्ष के इलाक़ों में निवासियों के ’दिल-दिमाग़ जीतने’ (विनिंग हर्ट्स एंड माइंड़) का अभियान चलाएंगे. यह शायद माओवादियों के ही उस अनुभव से सबक़ लेने की कोशिश है, जिसके बारे में कहा जाता है कि तीस चालीस साल पहले जब माओवादियों के दस्ते ने छत्तीसगढ़ के इस इलाक़े में प्रवेश किया तो ग्रामीणों, आदिवासियों ने उनमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. फिर माओवादियों ने आदिवासियों की बोली भाषा सीखी, उनकी संस्कृति का सम्मान किया, उसके प्रगतिशील जीवन-मूल्यों को अपनाया और फिर उन्हीं के होकर रह गए. लेकिन गृह-मंत्रालय के दिशा-निर्देश बोली भाषा सीखने और सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के बारे में शून्य हैं. 

आज हालात यह हैं कि मध्य भारत के एक बड़े भू-भाग में गृह-युद्ध जैसी स्थितियां हैं. प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) का दावा है कि वह इन इलाक़ों में लोगों की असली प्रतिनिधि है. और यहां के बेशक़ीमती खनिज संसाधनों, जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा में लोगों के संघर्ष की अगुआई कर रही है. इतना ही नहीं, वह इन संघर्षों के ज़रिये समाज के एक क्रांतिकारी रूपांतरण की योजना की भी बात करती है. अब जबकि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए बहुमत द्वारा चुनी ’लोकतांत्रिक’ सरकारें, राजनीतिक सामाजिक तौर तरीक़ों के बजाय, इन इलाक़ों को ’माओवादियों’ के प्रभुत्व से मुक्त कराने के फ़ौजी अभियान चला रही हैं, ज़ाहिर है, लूटपाट, मारपीट, हत्याओं, फ़र्ज़ी मुक़दमों, घर जलाने आदि के अनुपात में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी दर्ज़ की जा रही है. 

सरकार का यह दावा खोखला साबित हो रहा है कि इन इलाक़ों में कथित माओवादियों के कारण ’विकास’ के लड्डू नहीं पहुंच पा रहे हैं. चिंतलनार की हालिया वीभत्स घटनाएं इस धारणा को तथ्यात्मक तौर पर प्रमाणित करती है. बंधुआ मज़दूरी उन्मूलन के लिए चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और आर्य समाजी स्वामी अग्निवेश शुक्रवार को राहत सामग्री के साथ जब इस इलाक़े में जा रहे थे तो उनके क़ाफ़िले पर हमले किए गए. उनके साथ मौजूद पत्रकारों के कैमरे और मोबाइल फ़ोन छीन लिए गए. कई लोगों का मानना है कि सल्वा जुडुम के गिरोह ने यह सब दंतेवाड़ा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एस.आर.पी. कल्लूरी की देखरेख में किया. बाद में, स्वामी अग्निवेश को मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 150 पुलिस बल की सुरक्षा के साथ प्रभावित गांवों में जाने देने का आश्वासन दिया. लेकिन दुबारा स्वामी अग्निवेश की नाकेबंदी कर दी गई, उनके साथ फिर बदसलूकी की गई और प्रभावित गांवों तक नहीं जाने दिया गया. याद हो कि स्वामी अग्निवेश ने फ़रवरी महीने में इसी इलाक़े में माओवादियों द्वारा अपहृत पुलिस बल के पांच जवानों को रिहा करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी. अब वही स्वामी अग्निवेश जब पुलिस बल की ज़्यादतियों से प्रभावित गांवों के लिए राहत सामग्री लेकर जाते हैं तो पुलिस बल के लिए ’ख़तरनाक़’ हो जाते हैं. पिछले दिनों महाराष्ट्र के गढ़चिरोली ज़िले के एक गांव में भी पुलिस बलों के अत्याचार सामने आए थे. जब ज़िला पुलिस के विशेष सी-60 कमांडों के जवानों ने चार ग्रामीणों की बुरी तरह पिटाई की थी. दूसरे दिन, डीआईजी सुनील रामानंद ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सफ़ाई दी कि ग्रामीणों पर अत्याचार के मामलो को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. इस इलाक़े में पुलिस बल ग्रामीणों से जनसंपर्क करने के लिए (दिल-दिमाग़ जीतने के लिए) ’जनजागरण मेला’ भी करते हैं. 
     
क़ानूनविहीनता और संवैधानिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाने की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं. दंतेवाड़ा में हद तो यह थी कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कल्लूरी ने घटना की रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकारों पर ’माओवादी’ होने का आरोप मढ़ दिया. पहले तो वह ऐसी किसी ज़्यादती से ही इंकार कर रहा था. उसका कहना था कि ज़्यादतियों, झोपड़ियों के जलाने की बात ’माओवादियों का प्रचार’ है. यहां यह ज़िक़्र क़ाबिले ग़ौर है कि कल्लूरी वही शख़्स है जो 2006 में सरगुजा में पुलिस अधीक्षक रहते हुए एक आदिवासी महिला से बलात्कार का प्रमुख आरोपी है. इन पंक्तियों का लेखक इस घटना की फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम में शामिल था. उस महिला से हमने मुलाक़ात की थी. उसने बताया था कि कल्लूरी के नेतृत्व में वहां के एक बदमाश आत्मसमर्पित नक्सली धीरज जायसवाल के गिरोह ने थाने में कई दिनों तक उसका बलात्कार किया. इस बीच उसकी नवजात बच्ची ज़मीन पर पडी चीख़ती-बिलखती रही. लेधा नगेशिया नाम की इस महिला का पति माओवादियों के दलम में था. पुलिस ने उसके पति को समर्पण करने का लालच दिया. महिला ने अपने पति को समर्पण के लिए राज़ी किया. लेकिन समर्पण के लिए आए लेधा के पति को कई लोगों के सामने गोली मार दी गई. इसके बाद गांव वालों को चेतावनी दी गई कि ऐसे लोगों का यही हश्र होगा. पाठकों को यह बताना ज़रूरी है कि इसी घटना पर चर्चित पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने एक बेहतरीन रिपोर्टिंग की है जिसे 2007 के रामनाथ गोयनका उत्कृष्ट प्रिंट पत्रकारिता सम्मान से नवाज़ा गया है. यह सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया था. 

 तो अब अहम सवाल ’दिल और दिमाग़ जीतने’ का है. क्या व्यवस्था से असहमत, ’विद्रोहियों’, उनके समर्थक समुदाय के सदस्यों के दिल दिमाग़ जीतने का सरकारों का यही तौर तरीक़ा है? एक ओर फ़ौज़ी कार्रवाइयां, (ऑपरेशन ग्रीन हंट) तो दूसरी तरफ़, लगे हाथ ’विकास’ के फ़ॉर्मूले की असलियत यही है कि मकानों, झोपड़ियों और वहां गुज़र बसर करने वाले निवासियों की रची बसी ज़िंदगियां सुरक्षा बलों के बूटों तले कभी भी रौंदी जा सकती हैं. समूचा क्षेत्र एक ख़तरनाक ख़ूनी टकराव के दायरे में विकसित होता जा रहा है. चिंतलनार में मुरिया आदिवासियों की भूख से हुई मौतों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना तर्कसम्मत होगा. यह ’विकसित’ होते ’इंडिया’ की एक व्यवस्थाजन्य भयावह त्रासदी है. जहां पहले गांव के गांव जलाए जा रहे हैं, फिर मानवीय राहत सामग्रियों तक की नाकेबंदी कर ग्रामीणों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय मानवीय क़ानूनों का खुला उल्लँघन है.  

स्वामी अग्निवेश के क़ाफ़िले पर हमले के बाद कल्लूरी का ट्रांसफ़र कर दिया गया है. लेकिन उसे फिर उसी सरगुजा में डीआईजी बनाकर भेज दिया गया है. यह ट्रांसफ़र के साथ पदोन्नति का बेहतरीन ईनाम है. विडंबना है कि उसके साथ कलेक्टर प्रसन्ना को भी दंतेवाडा से विदाई दे दी गई है. जबकि प्रसन्ना मानवीय राहत सामग्री पहुंचाने में जुटे हुए थे. इस मसले पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुप्पी याद रखने लायक़ है, जो अपनी बहसों में ’देश की आवाज’ का खट-राग अलापता है.

सरकार संसाधनों को जिस धुन में कॉर्पोरेट घरानों को सौंप रही हैं उससे समूचे विकास की दिशा पर अहम सवाल पैदा होते हैं. इसके ख़िलाफ़ जो भी समूह या संगठन आवाज़ उठाते हैं उन्हें माओवादी के ठप्पे लगाकर बदनाम करने की आपराधिक चालें चली जा रही हैं. ऐसे मेँ, जनसंघर्षों के वास्तविक मुद्दों को संबोधित करने की पहलक़दमी के बजाय, ’दिल दिमाग़ जीतने’ के ये दिखावटी नुस्ख़े कब तक टिकेंगे?

4 comments:

  1. anil ji apaki story padke rongate khare ho gaye. kis prakar se sarkar aadiwasiyon ko pratrit kar rahi he jo aapane sapasht rup se ubhara he. aapki mehant or lagan ko salam.........bahut bahu badhai.

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  2. Awesome peice of writing with extraordinary information! Thanks for bringing out this truth to us.

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  3. apka lekh padhkar bahut acha laga apne suchnao ko jis sarlta se prastoot kiya hai wo sarahniy hai. itni badhiya jaankari dene ke liye shukriya.

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  4. bahut jaruri tha ye padhna aur mehsus karna ki hum kis jagah rah rahe hai...bahut sahsi aur sachha lekhan hain...iska asar hoga..tasweer badlegi...ladai jari rakhiye...hum sab aapke sath hain !!

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